३० फीसदी दवाएं किसी काम की नहीं
मुंबई, देश में कई दवाओं के नाम पर ‘जहर’ बिक रहा है। ये दवाइयां बीमारी में काम नहीं आतीं, बल्कि इनके साइड इफेक्ट से दूसरे रोग पैदा हो जाते हैं। इनमें से कई दवाइयों को प्रमुख देशों में प्रतिबंधित किया जा चुका है। मगर हिंदुस्थान में लचर व्यवस्था का लाभ उठाकर इन्हें अप्रूव करा लिया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार हर साल अप्रूवल पानेवाली ३० फीसदी दवाएं किसी काम की नहीं होतीं।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार केरल और अमेरिका के डॉक्टरों की संयुक्त रिसर्च में यह बात सामने आई है कि कई गंभीर रोगों के इलाज में इस्तेमाल होनेवाली दवाएं पूरी तरह बेअसर हैं। बावजूद इसके अप्रूवल देने की लचर व्यवस्था का लाभ उठाकर वंâपनियां इन दवाओं को बाजार में धड़ल्ले से बेच रही हैं। इन दवाओं में अर्थराइटिस, सेक्सुअल डिसऑर्डर, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिजीज, स्किन डिजीज और सांस से जुड़ी बीमारियां शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बिना प्रॉपर जांच के अप्रूवल देने का यह खेल करीब १० साल से चल रहा है। रिपोर्ट की सबसे चौंकानेवाली बात ये है कि इन दवाओं के असर की बात तो छोड़िए इनसे होनेवाले नुकसान पर भी ठीक से शोध नहीं किया जाता है। दरअसल, ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया की ओर से इन दवाओं को ऑटोमेटिक अप्रूवल मिलता है, क्योंकि इन्हें स्टेट ड्रग कंट्रोल डिपार्टमेंट की ओर से पहले ही अनुमति मिल चुकी होती है। एक तथ्य यह भी है कि देश में हाल फिलहाल के वर्षों में किसी भी दवा को उसकी खराब गुणवत्ता या साइड इफेक्ट की वजह से वापस नहीं लिया गया।
यह शोध न्यूयॉर्क के रोजवेल पार्क स्थित कैंसर सेंटर में रक्त और कैंसर विभाग की प्रमुख आर्या मरियम रॉय, न्यूयॉर्क के स्टोनी ब्रूक यूनिवर्सिटी के रेचल जोंस और केरल के एक मेडिकल कॉलेज की कैंसर विज्ञानी डॉ. अजू मैथ्यू की संयुक्त टीम ने किया है। ‘साइंस डाइरेक्ट’ में प्रकाशित इस अध्ययन में उन दवाओं को शामिल किया गया, जिन्हें हाल के वर्षों में देश में अप्रूवल दिया गया और इन्हीं दवाओं को अमेरिका, यूरोप व कनाडा में लाया गया।
शोध के अनुसार, देश में कई ऐसी गैर कैंसर दवाओं को अप्रूवल दिया गया, जिन्हें अमेरिका, यूरोप और कनाडा ने अपने यहां जारी करने से मना कर दिया। शोध में हिंदुस्थान की दवा अप्रूवल व्यवस्था में बड़े सुधार की जरूरत बताई गई है। डॉ. मैथ्यू ने कहा कि दूसरे देशों में दवाओं को अप्रूवल देने के बाद भी उनकी निगरानी की जाती है। लेकिन देश में खराब व्यवस्था की वजह से ऐसी दवाओं का कोई आंकड़ा नहीं जुटाया जाता है।