वनमाला ने छोड़ दिया था अभिनय नाराज पिता को मनाने के लिए , फिर संन्यासिन बन आजीवन की समाजसेवा…

किस्मत का पासा पलटता है तो जिंदगी बदल जाती है। जी हां, किस्मत कुछ ऐसी ही शै है कि इंसान की जिंदगी पूरी बदलकर रख देती है। इसका एक उदाहरण हैं अपने दौर की दिग्गज अभिनेत्री रहीं वनमाला देवी। दिवंगत अभिनेत्री वनमाला का जन्म राजघराने में हुआ। अभिनय का शौक उन्हें मायानगरी ले आया। फिल्मों में करियर चल पड़ा, लेकिन पिता की नाराजगी झेलनी पड़ी। आखिर में नाराज पिता को मनाने के लिए वनमाला ने अभिनय छोड़ दिया। अभिनय छूटा तो किस्मत उन्हें ले गई वृंदावन, जहां उन्होंने अपना जीवन समाज के नाम कर दिया। जी हां, वनमाला अभिनेत्री से संन्यासिन बन गईं और जब तक जीवित रहीं समाजसेवा करती रहीं। आइए जानते हैं इनके बारे में…
शाही परिवार में हुआ जन्म
वनमाला का वास्तविक नाम सुशीला पंवार था। इनका जन्म 23 मई 1915 को उज्जैन, मध्यप्रदेश में हुआ इनके पिता कर्नल रायबहादुर बापूराव आनंदराव पंवार ब्रिटिश हुकूमत में मालवा जिले और शिवपुरी के कलेक्टर थे। पिता का ट्रांसफर हुआ तो पूरा परिवार उज्जैन से ग्वालियर आ गया। वनमाला के पिता ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के करीबी थे, तो इन्हें वैसी सुविधाएं बचपन से मिलीं जैसी शाही परिवारों में होती हैं। पिता ने वनमाला का दाखिला शहर के नामी सरदार डॉटर्स स्कूल (द सिंधिया स्कूल) में करवाया, जहां उन्होंने घुड़सवारी, स्विमिंग, शूटिंग, पोलो और फेंसिंग की ट्रेनिंग भी ली। दरअसल, ये शहर का सबसे बड़ा स्कूल था, जहां ज्यादातर रॉयल फैमिली के बच्चे ही पढ़ते थे। इनके पिता आजादी के बाद ग्वालियर के राजा स्व. माधवराव सिंधिया के बनाए ट्रस्ट के मेंबर भी रहे।

वनमाला अपने दौर की पढ़ी-लिखा एक्ट्रेस में शुमार थीं। रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने डबल एमए किया था। मुंबई जाकर एमए में दाखिला लिया। मगर, वर्ष 1935 में उनकी मां सीता देवी का निधन हुआ तो वह पढ़ाई बीच में ही छोड़कर ग्वालियर वापस आ गईं। घर में मां की कमी खलने लगी तो वनमाला अपनी मौसी के पास पुणे चली गईं। उनकी मौसी पुणे के अगरकर हाई स्कूल की प्रिंसिपल थीं, जिसे मराठी थिएटर के नामी आर्टिस्ट आचार्य आत्रे ने शुरू किया था। समय काटने के लिए वनमाला भी इसी स्कूल में पढ़ाने लगीं।

मराठी आर्टिस्ट आचार्य आत्रे के जिस स्कूल में वनमाला टीचिंग कर रही थीं, उस जमाने में सिनेमा से जुड़ी कई हस्तियों का वहां आना-जाना था। वनमाला की खूबसूरती के चर्चे पहले ही पूरे कॉलेज में थे। दिग्गज फिल्ममेकर बाबूराव पेंढारकर, मास्टर विनायक और वी. शांताराम भी अक्सर स्कूल आते रहते थे। इन सभी ने स्कूल में कभी ना कभी वनमाला को देखा था। कुछ फिल्ममेकर्स ने उन्हें अपना असिस्टेंट भी बनाना चाहा, लेकिन वनमाला हर बार इनकार करती रहीं। दरअसल, उस समय महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। वहीं ऊंचे घराने की लड़कियों के लिए पाबंदियां और सख्त थीं। एक दिन सभी फिल्ममेकर्स ने मिलकर उन्हें समझाया कि वे फिल्मी दुनिया में खूब नाम कमा सकती हैं। वनमाला मान गईं। 1936 में उन्होंने मराठी फिल्म ‘लपांडव’ साइन कर ली। यहीं से इनकी जिंदगी में चुनौतियां आनी शुरू हुईं। वनमाला के पिता बेटी के अभिनय की दुनिया में जाने के सख्त खिलाफ थे। बेटी ने भी जब अपनी जिद के आगे पिता की एक न सुनी तो पिता ने उन्हें परिवार से बेदखल कर दिया।

पहली फिल्म ‘लपांडव’ के प्रीमियर में हिंदी सिनेमा के नामी फिल्ममेकर सोहराब मोदी की नजर वनमाला पर पड़ी। वह उनकी खूबसूरती पर इस कदर फिदा हुए कि अपनी हीरोइन बनाने का फैसला कर लिया। दरअसल, उस समय सोहराब अपनी फिल्म ‘सिकंदर’ के लिए हीरोइन की तलाश में थे, जो इस प्रीमियर में वनमाला पर खत्म हो गई। ‘सिकंदर’ से वनमाला हिंदी सिनेमा में आईं। फिल्म रिलीज हुई और वनमाला देशभर में रातों-रात स्टार बन गईं। मगर, पिता की नाराजगी दूर नहीं हुई। जब सिकंदर फिल्म रिलीज हुई, उसी समय वनमाला के पिता ग्वालियर के रीगल सिनेमा में फिल्म देखने पहुंचे। जैसे ही उन्होंने अपनी बेटी को पर्दे पर देखा तो बिना कुछ सोचे ही जेब में रखी पिस्तौल निकाली और स्क्रीन पर दिख रही बेटी की तरफ निशाना कर दाग दिया। पर्दा फट गया और सिनेमाघर में भगदड़ मच गई। इतना ही नहीं, पिता ने ग्वालियर में अपनी बेटी की फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया।

फिल्मों में वनमाला का अच्छा नाम हो चुका था। लेकिन,घरवालों से सारे रिश्ते टूटने का दुख वनमाला को खाए जा रहा था। पिता सुलह को तैयार न थे। मामले की चर्चा शहरभर में हुई तो कई जानी-मानी हस्तियों ने पिता-पुत्री के बीच सुलह कराने की कोशिश की। जैसे-तैसे वनमाला ने पिता से संपर्क किया और घर वापस आने की बात कही। नामी लोगों के दबाव में पिता राजी तो हुए, लेकिन शर्त रख दी कि घर वापस आना है तो फिल्में और फिल्मी दुनिया से नाता तोड़ना होगा। परिवार की तरफ से दबाव बढ़ने लगा तो वनमाला को आखिरकार झुकना ही पड़ा। करियर की बुलंदियों पर वनमाला ने फिल्में छोड़कर पिता और परिवार को चुना। ग्वालियर आकर ना सिर्फ सुशीला ने फिल्में छोड़ीं, बल्कि जीवन का हर सुख और मोह त्याग दिया। वह मथुरा-वृंदावन में एक साध्वी बनकर जीवन जीने लगीं। वह आजीवन अविवाहित रहीं और समाजसेवा करती रहीं।