इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुनाया बड़ा फैसला

प्रयागराज, एक पत्नी के होते हुए दूसरी शादी का अधिकार देनेवाले इस्लामिक कानून को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। हाईकोर्ट की ओर से कहा गया कि पत्नी की सहमति के बगैर दूसरी शादी करना पहली पत्नी के साथ क्रूरता है। कोर्ट यदि पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ पति के साथ रहने को बाध्य करता है तो यह महिला के गरिमामय जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उल्लघंन होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कुरान की सूरा ४ आयत ३ के हवाले से कहा कि यदि कोई मुस्लिम अपनी पत्नी व बच्चों की सही देखभाल करने में सक्षम नहीं है तो उसे दूसरी शादी करने की इजाजत नहीं होगी। कोर्ट ने परिवार अदालत संतकबीर नगर द्वारा पहली पत्नी हमीदुन्निशा उर्फ शफीकुंनिशा को पति के साथ उसकी मर्जी के खिलाफ रहने के लिए आदेश देने से इनकार करने को सही करार दिया और फैसले को इस्लामिक कानून के खिलाफ मानते हुए रद्द करने की मांग में दाखिल प्रथम अपील खारिज कर दी।
कोर्ट ने कहा कि जिस समाज में महिला का सम्मान नहीं, उसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता। महिलाओं का सम्मान करनेवाले देश को ही सभ्य देश कहा जा सकता है। कोर्ट ने कहा मुसलमानों को स्वयं ही एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी करने से बचना चाहिए और एक पत्नी के साथ न्याय न कर पानेवाले मुस्लिम को दूसरी शादी करने की स्वयं कुरान ही इजाजत नहीं देता। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों का हवाला दिया और कहा कि संविधान के अनुच्छेद-२१ के तहत प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। अनुच्छेद-१४ सभी को समानता का अधिकार देता है और अनुच्छेद-१५(२) लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने पर रोक लगाता है।
कोर्ट ने कहा कि कोई भी व्यक्तिगत कानून या चलन संवैधानिक अधिकारों को उल्लंघन नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा पर्सनल लॉ के नाम पर नागरिकों को संवैधानिक मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। जीवन के अधिकार में गरिमामय जीवन का अधिकार शामिल हैं। कोई भी मुस्लिम पत्नी-बच्चों की देखभाल नहीं कर सकता तो उसे पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं है। यह पहली पत्नी के साथ क्रूरता है। कोर्ट भी पहली पत्नी को पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।